निजीकरण की राह पर अग्रसर भारतीय रेलवे…….

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जनमत विचार (जनमत): देश की सरकार जहाँ विकास की परियोजनाओं को तेज करने का दावा कर रही है वहीँ देश के साथ ही पूरे विश्व में सबसे ज्यादा नौकरिया उपलब्ध करने के लिए जाने वाला रेलवे विभाग अब सरकार के फैसलों को लेकर असंतुष्ट नज़र आने लगा है| भारतीय रेल  के तक़रीबन 14000 अधिकारियों को कैडर मर्जर में लपेटकर लगभग 13.30 लाख  रेलकर्मियों को 30/55 के चक्कर में फंसाकर उन्हें बिना बताये रेलवे के निजीकरण का काम चुपचाप किया जा रहा है। जब की जितने भी मान्यताप्राप्त रेल संगठन है| वो सब इस का पुरे जोर सोर से  विरोध कर रहे हैं, मगर उनके इस विरोध का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ता दिख रहा है।वही सरकार ने पिछले कुछ वर्षो से इस विरोध और शिकायतों को अनदेखा और अनसुना कर रही है।

रेल  कारखानों और लगभग 150 ट्रेनों समेत और भी कई तरह से किए जा रहे निजीकरण के  विरुद्ध रेल संगठनों ने बीते दिनों एनसी-जेसीएम का परित्याग किया। वही अब दोनों रेल संगठन ‘रेल बचाओ-देश बचाओ’ संगोष्ठियां कर रहे हैं। इधर मान्यताप्राप्त रेल संगठन अपने मौजूदगी को बचाने में लगे हुए हैं। उधर अधिकारियों को कैडर मर्जर में उलझाकर उन्हें आपस में बांट दिया गया है। अब सरकार ने रेलवे के निजीकरण को मंजूरी दी ही दी है, तो रेलवे के सबसे कमाऊ और व्यस्त लगभग 100 रेल मार्गों पर 150  निजी ऑपरेटरों की निजी ट्रेनें चलेंगी और जनता से निजी ऑपरेटरों द्वारा मनमाना  भाड़े वसूल किया जाएगा। परंतु सरकार ने यह अभी तक नहीं बतया है कि क्या इन निजी ट्रेनों के इंजन और कोच भी निजी होंगे या फिर यह सब पहले की ही तरह सरकारी संपत्तियां रहेंगी? क्या वे फैक्ट्रियां, जहां कोच, धुरा, पहिया इत्यादि बनते हैं, वह सरकार के पास ही रहेंगी, या फिर वह भी प्राइवेट हाथों में बेच दी जाएंगी? अभी सिर्फ तेजस एक्सप्रेस ही एक ऐसी ट्रेन है, जिसमें कैटरिंग सर्विस को दूसरे ट्रेनों की भाती निजी हाथों में सौंपा गया है, जबकि कहा यह जा रहा है कि यह पूरी ट्रेन ही अब निजी ऑपरेटर को सौंप दी गई है।

इसके अलावा, जनता के पैसे से रेलवे की जो-जो संपत्तियां बनी हैं, वह चाहे कोच हो, या इंजन हों, या फिर कोच फैक्ट्रियां हों, रेल लाइनें हों, रेलवे स्टेशन हों, स्टाफ हो और रेलवे की जमीन हो, यह सब जनता के टैक्स से बने हैं। इन्हें बिल कुल भी बेचा नहीं जा सकता है और इन्हें बेचा भी नहीं चाहिए। यदि  इन्हें बेचना ही है तो इन्हें चंद कीमत पर अपने  कुछ खास लोगो को बेचने के बजाये, ओपन टेंडरिंग का पारदर्शी तरीका अपनाया जाना चाहिए। वही अगर कोई यदि निजी क्षेत्र रेल चलाने के लिए इतना ही जिज्ञासु और समर्थ है, तो उसे इसके लिए अपनी अलग रेल लाइनें बिछाकर और पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करके रेल चलाने की स्वीकृति दी जाए। वही रेलवे के वरिष्ठ अधिकारियों और रेलवे क्षेत्र के विषेशज्ञों का कहना है कि देश में जो कुछ चलाया जा रहा है, वह ठीक नहीं है। वही बहुत सारे विशेषज्ञों का कहना है कि रेलवे का निजीकरण कभी भी कामयाब नहीं हुआ है।

उनका कहना है कि इंग्लैंड के साथ ही साथ दुनिया भर में अब तक जिन-जिन देशों ने अपने देश के रेलवे का निजीकरण किया, उन सभी  देशों को अंतत में उनका पुनर्राष्ट्रीयकरण करना पड़ा। विश्व के जिन-जिन देशों ने अपने देश के रेलवे का निजीकरण किया, उन्हें बाद में उसका राष्ट्रीयकरण करने के लिए बेबस होना पड़ा है। आप को बाते दे की ब्रिटेन ने  भी  कुछ वर्ष पहले अपनी रेलवे का निजीकरण किया था, वही अब वहां भी एक-एक कर के  रेल लाइनों का राष्ट्रीयकरण किया जा रहा है। मिली जानकारी के अनुसार ब्रिटेन की उस समय की सरकार ने अपनी ही पार्टी के उद्योगपति सांसदों को  रेलवे को तोड़कर और कंपनियों में उसके तुकड़े करके सौंपी थी। इन सांसदों  ने रेलवे से सिर्फ लाभ ही कमाया, उनके रखरखाव पर कोई भी ध्यान नहीं दिया। जिस का नतीजा यह हुआ कि रेल दुर्घटनाएं बढ़ती गईं, जिससे वहां की जनता में सरकार के विरुद्ध क्रोध भर गया और रेलवे के पुनर्राष्ट्रीयकरण की मांग जोर पकड़ने लगी।

इसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार को रेल का  राष्ट्रीयकरण करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। उल्लेखनीय  है कि आस्ट्रेलियाई जनता द्वारा बड़े पैमाने पर चलाए  गए आंदोलन ‘हमारा ट्रैक वापस लो’ के बाद वहां की सरकार ने रेलवे को दुबारा से  अपने हाथों में लेना पड़ा। अर्जेंटीना में निजीकरण को ले कर रेल दुर्घटनाओं में भारी वृद्धि हुई जिस के बाद वह की सरकार ने साल 2015 में रेलवे का फिर से राष्ट्रीयकरण कर दुबार अपने हाथो में लेना पड़ा। इसी तरह न्यूजीलैंड ने भी साल 1980 में रेलवे का निजीकरण किया था, साल 2008 में भारी घाटे के  बाद रेलवे का पुनर्राष्ट्रीयकरण करने के लिए मजबूर होना पड़ा। ये सब  अब भारत में भी लागू किया जा रहा है। मौजूदा समय में केंद्र सरकार अपने कुछ खास  उद्योगपतियों को रेलवे की कीमती संपदा सौंपने की नीति पर चलती नजर आ रही है। ऐसा लग रहा है कि सरकार ने दुनिया के अनुभव से कोई सबक  नहीं लिया है, जिसके परिणाम आने वाले भविष्य में बहुत खतरनाक हो सकते हैं  और देश की 132 करोड़ जनता को इसका बुरा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।

रेलवे की कुछ कीमती जमीनें अपने खास लोगो को बेच दी गई हैं, या फिर लंबे समय के लिए लीज पर दे दी गई हैं इसी के साथ साथ अब ट्रेनें बेची जा रही हैं। देश और जनता की किसी को  कोई भी फिक्र नहीं है, सभी राजनीतिक लोग सिर्फ अपनी-अपनी रियासतें बनाने में लगे हुए हैं। क्या रेलमंत्री देश के सामने यह भी उजागर करेंगे कि 26 वर्ष पुरानी रिपोर्ट के आधार पर कैडर मर्जर करके रेलवे का कौन सा भला होने वाला है? और यह भी कि संसद की अनुमति के बिना, सिर्फ कैबिनेट से पास करवाकर, यह कैडर मर्जर संवैधानिक कैसे हो सकता है? क्या रेलमंत्री यह भी बताएंगे कि इस कथित कैडर मर्जर से  संविधान के चैप्टर 18, आर्टिकल 309 का उल्लंघन नहीं हो रहा है? उच्च पदस्थ सूत्रों ने यह भी बताया कि रेलवे के निजीकरण के संबंध में कुछ बड़े फैसले अप्रैल के बाद लिए जाएंगे।

इसलिए वर्तमान सीआरबी को 3 महीने के बजाय एक साल का विस्तार दिया गया है। उन्होंने यह भी बताया कि निजीकरण बोली में रेलवे की अधिकांश रखरखाव गतिविधियों का निजीकरण शामिल है। अधिकांश वर्कशॉप, शेड कॉरपोरेटाइजेशन की ओर बढ़ेंगे, जहां कई रेलवे अधिकारियों को अवशोषित किया जाएगा। बताया यह भी जा रहा है कि  2020 में 150 निजी गाड़ियां ही चलेंगी और अधिकांश लाभदायक मार्ग निजी खिलाड़ियों को दिए जाएंगे। इन सभी गतिविधियों को पीएम के विजन 2020 की 20 उपलब्धियों के रूप में बेचा जाएगा।

posted By:- Amitabh Chaubey