प्रेमचंद को अतिक्रमित करके दलित साहित्य नहीं लिखा जा सकता ….

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गाजीपुर (जनमत) :- हिंदी जगत के महान उपन्यासकारो में से एक प्रेमचंद विश्व के तीन शीर्षस्थ उपन्यासकारों में से एक हैं। ये बालजात और टालस्टाय की श्रेणी में आते हैं। प्रेमचंद रंग-भूमि और गोदान नहीं लिखे होते तो सामान्य श्रेणी के उपन्यासकार रह जाते।  समकालीन सोच परिवार के तत्वावधान में प्रेमचंद जयंती की पूर्व संध्या पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित करते हुए डा०पी०एन० सिंह ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में यह विचार व्यक्त किया। प्रेमचंद ने एक ऐसी नई संस्कृति का सूत्रपात किया है जो हिंदू-मुसलमान दोनों को मिलाती है। वे जितना गांधीवादी थे उतना ही मानवता वादी भी।  वे गांधीवाद को भौतिकवादी धरातल पर ही स्वीकार करते हैं। कुछ दलित साहित्यकारों ने प्रेमचंद की लाख आलोचना की हो किंतु इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि प्रेमचंद को अतिक्रमित करके दलित साहित्य नहीं लिखा जा सकता है।

हिंदी साहित्य में जिन्हें भी लेखन करना है वे प्रेमचंद को पढ़कर ही आगे बढ़ सकते है। भाषा की इससे देखा जाए तो प्रेमचंद ने उर्दू-फारसी और संस्कृत की परंपराओं से मुक्त करके भाषा और कथ्य दोनों पर प्रयोग की और उन्हें लोकप्रिय बनाया। भारतेंदु और प्रेमचंद ही हिंदी भाषा के दो ऐसे साहित्यकार है जिन्होंने लेखन को नई दिशा दी है। रामावतार में कहा की फ्रेम चमाट घंटे की नौकरी करते हुए विपुल मात्रा में साहित्य-सृजन किया है। जीवन के अंतिम समय में गंभीर बीमारी से पीड़ित रहते हुए भी गोदान जैसे कालजयी  उपन्यास को पूरा किया। पाश्चात्य प्रभाव को स्वीकार करते हुए भी प्रेमचंद भारतीय संस्कृति के मूलभूत आधारों-आदर्श, संयम, त्याग, उदारता, सेवा, परोपकार आदि को जीवन-दर्शन का प्रेरक तत्व मानते थे।

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व्यवहारिक जीवन में प्रेमचंद जी ने गांधी जी के रचनात्मक कार्य को पूरी तरह स्वीकार किया था। उनमें आर्य समाज की तार्किकता गांधीजी की विनयशीलता और तिलक की तेजस्विता का अद्भुत समन्वय था।  जितेन्द्र नाथ घोष ने कहा कि प्रेमचंद भौतिक रूप से भले ही हमारे बीच न हों किन्तु अपने कृतित्व के माध्यम से चिरकाल तक जीवंत रहेंगे। इस  गोष्ठी में डॉक्टर बद्री सिंह, कवित्रीद्व रश्मि शाक्या और पूजा राय ने काव्य पाठ किया। गोष्ठी में अनिल कुशवाहा, प्रमोद राय, मु० इरफान, मनोज राय, धर्मेंनद्र कुमार आदि ने भाग लिया। संचालन माधव कृष्ण ने किया।